लोकतंत्र की असली शक्ति आम जनता में निहित है। जब जनता चुप रहती है, तो नेता खुद को सर्वशक्तिमान समझने लगते हैं। वे अपनी शक्ति और स्थिति को अटूट मानने लगते हैं। लेकिन जब जनता अपनी आवाज उठाती है, तो उनकी आवाज इतनी प्रबल होती है कि सत्ता के ऊंचे महलों की नींव भी हिल जाती है। हाल के दिनों में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटी हैं। ये घटनाएं भारतीय राजनीति के लिए गंभीर सबक लेकर आई हैं। ये पूरी दुनिया के नेताओं के लिए एक चेतावनी भी हैं।
पहली घटना नेपाल में घटी। वहां जनता ने अपने नेताओं के खिलाफ भारी आक्रोश व्यक्त किया। दूसरी घटना भारत में हुई। वहां उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दल को हार का सामना करना पड़ा। इन दोनों घटनाओं ने एक कड़वा सच उजागर किया है। नेताओं का अहंकार और सत्ता का नशा, जब जनता के दुख और उम्मीदों को नजरअंदाज करता है, तो उसका अंत विनाशकारी होता है।

नेपाल की धरती पर एक असाधारण दृश्य देखने को मिला। आम जनता, खासकर युवा वर्ग, अपने नेताओं से इतना नाराज था। उन्होंने नेताओं की दौलत, ताकत और रुतबे को सार्वजनिक रूप से जला दिया। यह सिर्फ नेपाल की बात नहीं रही। यह घटना दुनिया भर के राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय बन गई। नेपाल की जनता ने अपने नेताओं को एक स्पष्ट संदेश दिया। राजनीति का मतलब जनता की सेवा है। यह निजी आराम और परिवारवाद के लिए नहीं है। युवाओं का यह गुस्सा नेताओं की सोच पर एक जोरदार प्रहार था। यह सोच उन्हें जनता से ऊपर मानती थी। यह दृश्य एक नए युग की शुरुआत का संकेत है। अब जनता नेताओं को देवता मानने के लिए तैयार नहीं है।
भारत में मंगलवार को उपराष्ट्रपति चुनाव हुए। इस चुनाव ने विपक्ष की कमजोरियों को सबके सामने ला दिया। हारना लोकतंत्र का एक हिस्सा है। लेकिन जब हार का कारण सिर्फ वोटों की गिनती नहीं होती। जब हार का कारण विपक्ष का आपस में बिखरा होना और नेताओं का अहंकार होता है। तो यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए चिंता का विषय है। इस चुनाव ने विपक्ष को न केवल हार का स्वाद चखाया। बल्कि यह भी दिखाया कि नेता जब अपने अहंकार और निजी स्वार्थ को पार्टी और लोकतांत्रिक मूल्यों से ऊपर रखते हैं। तो उनकी इज्जत मिट्टी में मिल जाती है।

इन दोनों घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है। अब जनता नेताओं को भगवान नहीं समझती। यह 21वीं सदी का नया लोकतांत्रिक युग है। जनता का धैर्य टूटने पर नेताओं के लिए कोई भी बचाव काम नहीं आएगा। लोकतंत्र में जनता मालिक होती है। नेता सेवक होते हैं। लेकिन जब सेवक खुद को मालिक समझने लगते हैं। तो जनता उन्हें कड़ी सजा देने से पीछे नहीं हटती।
यह सिर्फ भारत या नेपाल की कहानी नहीं है। दुनिया भर के नेता जनता के गुस्से का सामना कर रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, श्रीलंका जैसे देशों में जनता का गुस्सा सड़कों पर दिख चुका है। श्रीलंका में जनता ने राष्ट्रपति भवन पर धावा बोल दिया। राष्ट्रपति को भागने पर मजबूर होना पड़ा। ये घटनाएं दर्शाती हैं। आज की वैश्विक राजनीति में जनता की आवाज को अनसुना करना आत्महत्या के बराबर है।
नेताओं की सबसे बड़ी भूल यही है। वे सत्ता में आते ही खुद को अजेय मानने लगते हैं। उन्हें लगता है कि जनता उनके वादों को भूल जाएगी। वे धनबल, जाति-धर्म या सत्ता के बल पर फिर से चुनाव जीत जाएंगे। लेकिन नई पीढ़ी की जागरूकता ने यह भ्रम तोड़ दिया है। सोशल मीडिया, शिक्षा और दुनिया भर की खबरों ने जनता को पहले से कहीं अधिक जागरूक बना दिया है। अब जनता नेताओं के हर कदम पर नजर रखती है।

भारत को नेपाल की घटना से सीखना चाहिए। यहां भी युवाओं का गुस्सा कम नहीं है। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जातिगत राजनीति और नेताओं का अहंकार पहले से ही जनता को परेशान कर रहा है। यदि भारतीय नेता समय रहते नहीं चेते। तो यहां भी जनता का गुस्सा भड़क सकता है। उपराष्ट्रपति चुनाव ने विपक्ष को आईना दिखाया है। केवल सत्ता के लिए राजनीति करने का युग अब खत्म हो रहा है। जनता आज पारदर्शिता, वफादारी और सेवा चाहती है।
भारत में विपक्ष की कमजोरी सिर्फ वोटों की संख्या के कारण नहीं है। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी नेताओं का अहंकार और भ्रम है। एक तरफ जनता एक मजबूत विपक्ष चाहती है। जो सरकार से सवाल पूछे। लेकिन विपक्ष अपने ही अंदरूनी झगड़ों में फंसा हुआ है। यही कारण है कि जनता धीरे-धीरे उनसे दूर हो रही है। यदि विपक्ष खुद को फिर से खड़ा करना चाहता है। तो उसे अहंकार छोड़कर जनता के मुद्दों पर ईमानदारी से काम करना होगा।

लोकतंत्र सिर्फ नेताओं के भरोसे नहीं चलता। जनता को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। यदि जनता सिर्फ जाति, धर्म और छोटे-मोटे फायदों पर वोट देती रहेगी। तो नेताओं का अहंकार और बढ़ेगा। जनता को अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी एहसास होना चाहिए। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा। जब जनता नेताओं को जवाबदेह ठहराने का साहस दिखाएगी।
नेपाल और भारत की घटनाएं सिर्फ दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं हैं। ये पूरी दुनिया के नेताओं के लिए एक चेतावनी हैं। सत्ता केवल सेवा का जरिया है। स्वार्थ का अड्डा नहीं। यदि नेता इस मूल सिद्धांत को भूल जाएंगे। तो जनता उन्हें सत्ता से बेदखल कर देगी। जनता के धैर्य की भी एक सीमा होती है। उस सीमा को पार करने पर परिणाम विनाशकारी होते हैं। नेताओं को समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, मालिक नहीं। उनकी शक्ति जनता से आती है, खुद से नहीं।








