भारत की राजनीति में आरक्षण, जाति और चुनावी वादों का खेल कोई नया नहीं है। हर चुनाव से पहले सत्ता में बैठी या सत्ता की लालसा रखने वाली पार्टियाँ सामान्य वर्ग (सवर्ण या कहे जाने वाले आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग) को कुछ न कुछ नए वादों और योजनाओं का लालच देकर अपनी गोटियाँ साधती हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि इन वादों का अधिकांश हिस्सा केवल कागजों और घोषणाओं तक सीमित रह जाता है।
2011 में बिहार सरकार द्वारा गठित “सवर्ण आयोग” इसका जीता-जागता उदाहरण है, जिसने 2013 में अपनी विस्तृत रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी। रिपोर्ट में सामान्य वर्ग की आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति का गहन अध्ययन कर ठोस सुझाव दिए गए थे। लेकिन यह रिपोर्ट कभी लागू नहीं हुई। समय बीता, चुनाव आए और गए, पर सामान्य वर्ग के लिए स्थितियाँ जस की तस बनी रही।
आज, 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले सरकार ने एक बार फिर उसी आयोग का नाम बदलकर “उच्च जातियों के विकास के लिए राज्य आयोग” कर दिया है। सवाल उठता है कि क्या यह नया आयोग पुराने घावों पर नमक छिड़कने जैसा कदम नहीं है?
2011 में बिहार सरकार ने सामान्य वर्ग की समस्याओं को समझने और उनके लिए नीतिगत समाधान सुझाने के लिए एक विशेष आयोग का गठन किया। इसका उद्देश्य था, सामान्य वर्ग की आर्थिक स्थिति का आकलन करना। शिक्षा और रोजगार में उनकी भागीदारी बढ़ाने के उपाय सुझाना। सामाजिक उपेक्षा और असमानता पर ठोस रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
आयोग ने 11 जिलों का सर्वेक्षण कर पाया कि सामान्य वर्ग की बड़ी आबादी आर्थिक संकट से जूझ रही है। सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में उनका प्रतिनिधित्व बेहद कम है। उच्च शिक्षा और प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में भाग लेने के अवसर सीमित हैं। सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में उनकी उपेक्षा बढ़ रही है। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि सामान्य वर्ग को भी विशेष आर्थिक योजनाओं, छात्रवृत्ति, और रोजगार सृजन कार्यक्रमों से जोड़ा जाए।
लेकिन रिपोर्ट न तो सार्वजनिक हुई और न ही उस पर कोई ठोस कार्रवाई। यह उपेक्षा इस बात का प्रमाण है कि आयोग केवल एक “चुनावी हथकंडा” था। सामान्य वर्ग की पीड़ा को समझने के बजाय उसे वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया गया।
2019 में केंद्र सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% आरक्षण की घोषणा की। यह सामान्य वर्ग के लिए आशा की किरण मानी गई। लेकिन इसकी हकीकत उतनी सरल नहीं थी। इसमें न तो आयु सीमा में छूट है, न ही परीक्षा शुल्क में रियायत, और न ही पदोन्नति में कोई लाभ। यानि प्रतिस्पर्धा की तीखी दौड़ में सामान्य वर्ग के युवाओं के लिए यह आरक्षण केवल “कागजी राहत” बनकर रह गया।
एक और गलतफहमी यह है कि EWS केवल सवर्ण जातियों के लिए है। जबकि इसमें बौद्ध, ईसाई, जैन, पारसी, सिख, शेख, सैयद, पठान जैसे कई समुदाय शामिल हैं। फिर भी राजनीतिक प्रचार में इसे केवल “सवर्ण आरक्षण” बताकर विवाद खड़ा किया जाता है, और बदनामी का ठीकरा कुछ परंपरागत जातियों पर फोड़ दिया जाता है।
बिहार की राजनीति में जातीय गणना और आरक्षण सबसे गर्म मुद्दा रहा है। पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों को संगठित कर राजनीतिक दल सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ते रहे हैं। राजनीतिक दल मानते हैं कि सामान्य वर्ग की संख्या सीमित है और वे स्वाभाविक रूप से किसी एक दल को समर्थन देंगे। जातीय समीकरण के दबाव में सामान्य वर्ग की समस्याओं को दरकिनार कर दिया जाता है। आरक्षण की सीमा बढ़ाने की माँग पर भी सामान्य वर्ग के लिए जगह नहीं छोड़ी जाती। इस उपेक्षा का नतीजा यह हुआ कि सामान्य वर्ग के योग्य युवा अपने ही राज्य में हाशिए पर धकेल दिए गए। प्रतियोगी परीक्षाओं में जी-तोड़ मेहनत करने के बावजूद उन्हें अवसर नहीं मिलते।
क्यों बनता है सामान्य वर्ग आसान शिकार? सरकारें सामान्य वर्ग को “सम्मान” और “प्रतिष्ठा” का वादा करती हैं। चुनावी मौसम में उनके लिए आयोग, योजनाएँ और घोषणाएँ की जाती हैं। चुनाव बाद सब वादे ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं। जातीय राजनीति की गूंज में सामान्य वर्ग की आवाज अक्सर दबा दी जाती है।
अब सवाल यह है कि सामान्य वर्ग इस ठगी के चक्र से कैसे बाहर निकले? उच्च शिक्षा और कौशल विकास ही वह मार्ग है जो उन्हें अवसर दिला सकता है। प्रतियोगी परीक्षाओं के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा, स्टार्टअप और शोध पर ध्यान देना जरूरी है। विदेशों में शिक्षा और रोजगार के अवसर सामान्य वर्ग के युवाओं के लिए नए द्वार खोल सकते हैं। डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक और कारीगर के रूप में वे अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी पहचान बना सकते हैं। सरकारी नौकरी की सीमित दुनिया से बाहर निकलकर व्यापार, उद्योग और स्टार्टअप की ओर कदम बढ़ाना आवश्यक है। आत्मनिर्भरता ही सबसे बड़ा उत्तर है।
इतिहास गवाह है कि आयोग, आरक्षण और वादों के नाम पर सामान्य वर्ग को केवल ठगा गया है। कल भी ठगे गए, आज भी ठगे जा रहे हैं। अब समय है कि सामान्य वर्ग यह समझे कि उसका भविष्य केवल उसकी मेहनत, शिक्षा और आत्मनिर्भरता में है।
सवर्ण आयोग से लेकर उच्च जातियों के विकास आयोग और EWS आरक्षण तक, यह पूरा सफर सामान्य वर्ग की ठगी का सिलसिला रहा है। हर बार उन्हें झूठी उम्मीदें दिखाकर वोटों की राजनीति की गई। लेकिन अब सामान्य वर्ग को यह मानना होगा कि उसका भविष्य सरकार की कृपा पर नहीं है, बल्कि उसकी अपनी मेहनत, शिक्षा, आत्मनिर्भरता और वैश्विक अवसरों की तलाश पर निर्भर है।








