मानव सभ्यता का एक लंबा सफर रहा है। विज्ञान और तकनीक ने हमेशा जीवन को सरल बनाने का काम किया है। चिकित्सा विज्ञान ने तो कई असंभव लगने वाली बीमारियों का इलाज संभव कर दिखाया है। कभी हड्डी टूटना, जिसे फ्रैक्चर कहते हैं, एक बड़ी समस्या थी। महीनों तक आराम करना पड़ता था। बार-बार डॉक्टर के पास जाना पड़ता था। इलाज लंबा चलता था। लेकिन अब चीन के वैज्ञानिकों ने एक कमाल का आविष्कार किया है। यह चिकित्सा क्षेत्र में बड़ा बदलाव ला सकता है। इसका नाम है ‘बोन ग्लू’ (Bone Glue)। यह टूटी हुई हड्डियों को मात्र तीन मिनट में जोड़ सकता है।

हड्डी टूटना कोई नई बात नहीं है। सड़क दुर्घटनाएं, खेल के दौरान चोट लगना, ऊंचाई से गिरना, या बुढ़ापे में हड्डियों का कमजोर होना, जिसे ऑस्टियोपोरोसिस कहते हैं, ये सब फ्रैक्चर के कारण हैं। पहले टूटी हड्डी को जोड़ने के लिए प्लास्टर का इस्तेमाल होता था। कई बार स्क्रू, स्टील प्लेट या रॉड की जरूरत पड़ती थी। कुछ मामलों में शरीर में इंप्लांट लगाना पड़ता था। ये इंप्लांट शरीर में लंबे समय तक रहते थे। अक्सर इन्हें निकालने के लिए दोबारा सर्जरी करनी पड़ती थी। हड्डी को पूरी तरह ठीक होने में कई महीने लग जाते थे। इस दौरान मरीज को अपना काम छोड़ना पड़ता था। उनकी रोजमर्रा की जिंदगी प्रभावित होती थी।
पूर्वी चीन के झेजियांग प्रांत में डॉ. लिन जियानफेंग और उनकी टीम ने एक खास ‘बोन ग्लू’ बनाया है। उन्होंने इसे ‘बोन 02’ नाम दिया है। इस ग्लू का विचार उन्हें समुद्र में रहने वाले सीप (mussels) से मिला। सीप पानी के नीचे चट्टानों से बहुत मजबूती से चिपके रहते हैं। इसी प्राकृतिक सिद्धांत का उपयोग करके यह ‘बोन ग्लू’ बनाया गया है।
यह एक खास तरह का रासायनिक और जैविक मिश्रण है। यह हड्डियों की सतह पर बहुत जल्दी चिपक जाता है। यह सिर्फ दो से तीन मिनट में टूटी हड्डियों को जोड़ देता है। सबसे अच्छी बात यह है कि अगर खून बह रहा हो, तब भी यह काम करता है। जब हड्डी पूरी तरह ठीक हो जाती है, तो यह ग्लू अपने आप शरीर में घुल जाता है। इसका मतलब है कि मरीज को इंप्लांट निकालने के लिए दूसरी सर्जरी नहीं करवानी पड़ेगी।
अब तक 150 से अधिक मरीजों पर इसका सफल परीक्षण हो चुका है। जब इस ग्लू से जुड़ी हड्डी पर 400 पाउंड से भी ज्यादा वजन डाला गया, तब भी हड्डी मजबूती से जुड़ी रही। यह तकनीक सुरक्षा और असर, दोनों मामलों में सफल साबित हुई है।
यह तकनीक सिर्फ चीन तक सीमित नहीं रहेगी। आने वाले सालों में यह पूरी दुनिया में इस्तेमाल हो सकती है। भारत जैसे देशों के लिए, जहां सड़क हादसों और हड्डी टूटने के मामले बहुत ज्यादा हैं, यह तकनीक एक वरदान साबित होगी। बुजुर्गों में ऑस्टियोपोरोसिस के कारण हड्डियां आसानी से टूट जाती हैं। यह बोन ग्लू उनकी जिंदगी को आसान बना देगा। खिलाड़ी चोट लगने के बाद जल्दी मैदान में वापसी कर पाएंगे।
इस ग्लू को बनाने के पीछे का विज्ञान बहुत दिलचस्प है। इसे बायोमिमिक्री (Biomimicry) कहते हैं। इसका मतलब है प्रकृति से सीखकर नई तकनीक बनाना। जिस तरह समुद्री सीप पानी के नीचे चट्टानों से मजबूती से चिपकते हैं, उसी तरह की क्षमता इस ग्लू में डाली गई है। यह बायोकम्पैटिबल है, जिसका अर्थ है कि शरीर इसे स्वीकार करता है और कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।
यह तकनीक बहुत अच्छी है, लेकिन कुछ मुश्किलें भी आ सकती हैं। बड़े पैमाने पर इसका उत्पादन करना एक चुनौती हो सकती है। इसे सस्ता बनाना होगा ताकि गरीब और मध्यम वर्ग के लोग भी इसका फायदा उठा सकें। इसके लंबे समय के असर की जांच करनी होगी। इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलानी होगी। एफडीए (FDA) जैसी संस्थाओं से मंजूरी लेनी होगी।
भारत में हर साल लाखों लोग सड़क हादसों और गिरने से घायल होते हैं। यहां हड्डी रोग विशेषज्ञों को अक्सर मरीजों का इलाज करने में महीनों लग जाते हैं। अगर ‘बोन ग्लू’ भारत में उपलब्ध हो जाए, तो इससे सर्जरी का बोझ कम हो जाएगा। ग्रामीण इलाकों में, जहां आधुनिक अस्पताल नहीं हैं, वहां भी यह तकनीक जीवन बचाने में मददगार हो सकती है।
यह खोज सिर्फ एक इलाज नहीं है। यह चिकित्सा जगत में एक नई राह दिखाती है। अब तक इलाज की जो सीमाएं थीं, यह तकनीक उन्हें तोड़ रही है। आने वाले समय में, यह तकनीक 3D प्रिंटेड हड्डियों, कृत्रिम जोड़ों और रोबोटिक सर्जरी के साथ मिलकर और भी बड़े बदलाव ला सकती है।
बोन ग्लू की यह खोज आने वाली पीढ़ियों के लिए चिकित्सा क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम साबित होगी। जैसे पेनिसिलिन और वैक्सीन ने दुनिया को नई उम्मीद दी थी, वैसे ही यह तकनीक हड्डी के इलाज को नई दिशा देगी। अब मरीजों को महीनों तक इंतजार नहीं करना पड़ेगा। उन्हें बार-बार अस्पताल के चक्कर भी नहीं लगाने होंगे।








